Saturday, February 23, 2008

प्राण...

आँसू यह अब झरता नहीं
किसी को चुप करता नहीं
बस गाँठों पर गाँठें
यहाँ कसता है आदमी
एक पल में प्राण गये
तो मुर्दा है आदमी

कहता है तो रूकता नहीं
खुद की भी यह सुनता नहीं
ना खुलकर है हँसता
ना रोता है आदमी
एक पल में प्राण गये
तो मुर्दा है आदमी

देह तर्पण में लगा
और प्राण की सुनता नहीं
बस छोड़कर यहाँ खुदको
सब जानता है आदमी
एक पल में प्राण गये
तो मुर्दा है आदमी

कर्मफ़ल और मृत्यु
सबसे बड़े दो सत्य हैं
क्यूँ आज फ़िर इंसानियत को
भूला है आदमी
एक पल में प्राण गये
तो मुर्दा है आदमी

Sunday, February 10, 2008

दूर तक है बहना...

अभिव्यक्ति से बढ़कर रखी थी
अव्यक्त से आशा
इंसानियत को मानकर
सही धर्म की परिभाषा
उसने पहले
जितना सहा जा सकता था
उतना सहा
फ़िर
जितना कहा जा सकता था
उतना कहा
पर धीरे-धीरे उसने जाना
गर अकेले चल पड़ा
तो भी मंजिलें मिल जायेंगी
पर अकेले व्यक्त इनको
क्या मैं भला कर पाऊँगा
यह सही यहाँ मैं नहीं
पर प्रतिबिम्ब हैं मेरे सभी
फ़िर क्यों उन्हें है सहना
बस मुझे तो संग इनके
दूर तक है बहना
बस मुझे तो संग इनके
दूर तक है बहना